Monday, May 27, 2019

मोदी राज में विपक्ष के अस्तित्व का संकट, सरकार पर कौन लगाएगा अंकुश?

लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले एनडीए गठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई है. भाजपा ने अकेले तीन सौ के आंकड़ों को पार किया और 303 सीटों पर जीत का परचम लहराने में सफल रही.

अन्य सहयोगी पार्टियों के साथ ने इस जीत को और प्रचंड बना दिया. एनडीए ने लोकसभा की कुल 353 सीटों पर कब्जा किया, वहीं कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए 92 सीटों पर सिमट कर रह गया.

कांग्रेस के अकेले प्रदर्शन की बात करें तो काफी खींच-तान के बाद पार्टी को महज 52 सीटों पर सफलता मिली.

भाजपा की इस बड़ी जीत के बाद भारतीय राजनीति में विपक्ष के सामने एक बार फिर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है.

सत्रहवीं लोकसभा में सरकार के सामने आधिकारिक रूप से विपक्ष का नेता नहीं होगा. पिछली सरकार में भी ऐसी ही स्थिति थी.

सदन में सरकार के सामने कई विपक्षी पार्टियां होती हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर उस पार्टी को विपक्ष का नेता बनाने का मौका मिलता है जिसके पास कम से कम 10 फीसदी सीटें हासिल हों.

यानी 543 सीटों वाले लोकसभा में विपक्ष का नेता उस पार्टी का होगा, जिसके पास कम से कम 55 सीट होंगी.

इस बार कांग्रेस इस आंकड़े को छू पाने में सफल नहीं रही है. पार्टी के पास 52 सांसद हैं और विपक्षी नेता का तमग़ा हासिल करने से वो तीन पायदान नीचे रह गई.

2014 के चुनावों की बात करें तो कांग्रेस महज 44 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी और उस बार भी सदन को विपक्ष का नेता नहीं मिल पाया था.

मोदी राज में न सिर्फ विपक्षी पार्टियों बल्कि विपक्ष के नेता के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है. अब सवाल उठता है कि ऐसे में भारतीय लोकतंत्र किस ओर जाएगा?

इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि हमारी संसदीय राजनीति में विपक्ष के नेता की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका संविधान के अनुसार लोकतंत्र को चलाने के लिए होती है.

नवीन जोशी कहते हैं, "संवैधानिक संस्थानों जैसे सीबीआई का निदेशक या सूचना आयुक्त की नियुक्ति या फिर सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में प्रतिपक्ष के नेता की बड़ी भूमिका होती है."

"विपक्ष के नेता का ओहदा प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस के स्तर का समझा जाता है. पिछली बार भी कांग्रेस इतनी सीटें नहीं ला पाई थी कि तकनीक तौर पर विपक्ष के नेता का दर्जा हासिल कर पाती, इस बार भी वो यह दर्जा पाने में नाकाम रही है."

"ऐसे में फर्क तो पड़ता है. जो आवाज़ एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की हो सकती है, वो कृपा या सरकार की उदारता के कारण मिले दर्जे की नहीं हो सकती है."

एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी समझा जाता है. विपक्ष सरकार के कार्यों और नीतियों पर सवाल उठाता है और उसे निरंकुश होने से रोकता है.

संसद में अगर विपक्ष कमज़ोर होता है तो मनमाने तरीके से सत्ता पक्ष कानून बना सकता है और सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी बहस मज़बूत विपक्ष के बिना संभव नहीं है.

भारतीय लोकतंत्र इस बात का गवाह रहा है कि जब भी अटल बिहारी वाजपेयी, भैरो सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता संसद में बोलते थे, सत्ता पक्ष उनकी बातों को संजीदगी से सुनता था.

न सिर्फ सुनना, नीतियों और योजनाओं को विपक्ष की बहस से धार दिया जाता था और उसे जनोत्थान के लिए बेहतर समझा जाता है.

एनडीए सरकार भी मज़बूत विपक्ष के महत्व को समझती है. भाजपा के वरिष्ठ नेता तरुण विजय क्षेत्रीय अख़बार प्रभात ख़बर में प्रकाशित एक लेख में लिखते हैं, "विपक्ष धारदार, असरदार और ईमानदार हो तो सरकार उसके डर से कांपती है, देश का भला होता है, सरकारी नेताओं का अंहकार, उनकी निरंकुश और मनमानी नियंत्रित रहती है."